दिल्ली, जो पहले ही दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में गिनी जाती है, वहाँ सरकार के अपने ही वाहन प्रदूषण नियंत्रण (PUC) के नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं हाल ही में दिल्ली परिवहन विभाग ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) को बताया कि करीब 31,000 सरकारी वाहनों में से लगभग 40% वाहनों के पास वैध PUC प्रमाणपत्र नहीं है। यानी जो सरकार जनता पर प्रदूषण नियंत्रण के सख्त नियम थोपती है, वही खुद उन नियमों का पालन नहीं कर रही।
नियम जनता के लिए, अपवाद सरकार के लिए?
सवाल यह है कि जब आम नागरिक का वाहन थोड़ा सा धुआँ छोड़ दे तो चालान काटा जाता है, वाहन जब्त कर लिया जाता है तो सरकारी विभागों पर वही नियम क्यों लागू नहीं होते? क्या प्रदूषण सरकारी वाहनों से निकलने पर “कम जहरीला” हो जाता है?
दिल्ली सरकार और उसकी एजेंसियाँ GRAP (Graded Response Action Plan) जैसी योजनाएँ लागू करने में तो सक्रिय दिखती हैं, पर खुद इनका पालन करने में नाकाम हैं। यह उस प्रवृत्ति की झलक है जहाँ सरकार “नियम बनाती है, पर खुद को उनसे ऊपर समझती है।”
जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना
रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि परिवहन विभाग के पास यह जानकारी तक नहीं है कि कौन से विभागों के वाहन बिना वैध PUC के चल रहे हैं, और कौन से वाहन अपनी आयुसीमा (लाइफस्पैन) पूरी कर चुके हैं।
यह प्रशासनिक लापरवाही की पराकाष्ठा है। अगर सरकार अपने वाहनों का रिकॉर्ड नहीं रख पा रही, तो वह निजी वाहनों से जिम्मेदारी की उम्मीद कैसे कर सकती है?
जनता के लिए संदेश क्या?
एक ओर सरकार लोगों से कहती है कि कारपूल करें, मेट्रो का उपयोग करें, और प्रदूषण घटाएँ। दूसरी ओर, उसके अपने पुराने और बिना PUC वाले वाहन सड़कों पर धुआँ उगलते घूम रहे हैं। यह व्यवहार जनता में सरकार की नीतियों के प्रति अविश्वास और उपेक्षा पैदा करता है।
NGT का हस्तक्षेप
NGT ने ठीक ही कहा कि “सरकार खुद नियमों की उल्लंघनकर्ता नहीं हो सकती।” लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह चेतावनी मात्र “कागजी सुधार” तक सीमित रह जाएगी, या वाकई दोषियों पर कार्रवाई होगी?
दिल्ली में पहले भी कई बार ऐसे मामलों में रिपोर्टें दी गईं, नोटिस भेजे गए, लेकिन सुधार नहीं हुआ। अब समय आ गया है कि केवल निर्देश नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाए जाएँ – जैसे बिना PUC के सभी सरकारी वाहनों को तुरंत डिपो में खड़ा किया जाए, और ओवरेज वाहनों को कबाड़ घोषित किया जाए।
अगर दिल्ली सरकार वास्तव में प्रदूषण को लेकर गंभीर है तो उसे यह समझना होगा कि विश्वसनीयता की शुरुआत खुद से होती है।
जनता वही करेगी जो वह देखेगी और अगर सरकार ही प्रदूषण फैला रही है, तो उसके “ग्रीन दिल्ली” जैसे नारे सिर्फ पोस्टरों तक ही रह जाएंगे।