13 जुलाई 1931 का दिन जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ गया। यह दिन बलिदान, विद्रोह और स्मृति का प्रतीक है, जो 2025 में एक नए टकराव के साथ फिर से सुर्खियों में आया। यह लेख उस घटना को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करता है, जिसमें मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की श्रद्धांजलि, प्रशासन का हस्तक्षेप और लोकतंत्र पर उठते सवाल शामिल हैं।
एक तारीख, दो दृष्टिकोण
ऐतिहासिक महत्व
उमर अब्दुल्ला: 13 जुलाई 1931 को श्रीनगर सेंट्रल जेल के बाहर 22 कश्मीरी नागरिकों को डोगरा राजशाही की पुलिस ने गोली मार दी थी। ये लोग धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एकत्र हुए थे, लेकिन सत्ताधारियों ने उनकी भीड़ को ‘अवज्ञा’ करार दिया। इस घटना को जम्मू-कश्मीर में ‘शहीद दिवस’ के रूप में दशकों तक मनाया जाता रहा, जो स्थानीय संघर्ष और गौरव की स्मृति का प्रतीक है।
2025 में बदला परिदृश्य
2025 में यह दिन विवाद का केंद्र बन गया। प्रशासन ने इस स्मृति को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया, जिससे सवाल उठा: क्या जनता को अपने इतिहास को याद करने का अधिकार भी छीना जा रहा है?
पुलिस बनाम मुख्यमंत्री: शक्ति का टकराव
उमर अब्दुल्ला की श्रद्धांजलि
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने परंपरागत रूप से मज़ार-ए-शोहदा (शहीदों की कब्रगाह) पर ‘फातिहा’ पढ़ने का निर्णय लिया। यह उनका पहला प्रयास नहीं था; वह पहले भी कई बार यह श्रद्धांजलि दे चुके हैं। लेकिन इस बार प्रशासन ने उनके आवास के बाहर बंकर वाहन और सुरक्षा घेरा तैनात कर दिया।
प्रशासन का हस्तक्षेप
पुलिस ने उमर अब्दुल्ला को गृह नजरबंदी जैसी स्थिति में रखा और कब्रगाह तक पहुंचने से रोका। जवाब में, उमर अब्दुल्ला ने दीवार फांदकर कब्रगाह में प्रवेश किया और श्रद्धांजलि दी। इस घटना को उन्होंने कैमरे में रिकॉर्ड कर देश के सामने पेश किया, जो सत्ता और स्मृति के बीच टकराव का प्रतीक बन गया।
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प्रशासन का डर: जायज़ या अनुचित?
प्रशासन का तर्क
प्रशासन ने दावा किया कि यह कदम कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए उठाया गया। हालांकि, इस तर्क पर सवाल उठते हैं:
- कोई आधिकारिक प्रतिबंध आदेश सार्वजनिक नहीं किया गया।
- मुख्यमंत्री या अन्य नेताओं को कोई नोटिस नहीं दी गई।
- मीडिया को कवरेज से रोका गया, जिससे पारदर्शिता पर संदेह पैदा हुआ।
पूर्व-सेंसरशिप का आरोप
यह कार्यवाही ‘संभावित असहमति’ को दबाने की रणनीति प्रतीत होती है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
इतिहास की राजनीति: ‘शहीद’ या ‘दंगाई’?
केंद्र का दृष्टिकोण
2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद, केंद्र सरकार ने 13 जुलाई को राजकीय अवकाशों की सूची से हटा दिया। कुछ भाजपा नेताओं ने 1931 में मारे गए लोगों को ‘शहीद’ नहीं, बल्कि ‘राज्यद्रोही’ करार दिया। उनका तर्क है कि ये लोग डोगरा शासन के खिलाफ उग्र विद्रोह में शामिल थे।
सवाल
- क्या स्वतंत्र भारत में इतिहास को सत्ता के अनुकूल लिखा जाना चाहिए?
- क्या जनता को अपने स्मृति-दिवस चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए?
केंद्र बनाम राज्य: लोकतंत्र की सीमाएं
संघीय ढांचे पर सवाल
यह घटना केवल श्रद्धांजलि का मुद्दा नहीं, बल्कि भारतीय संघीय ढांचे और लोकतंत्र की वास्तविकता पर सवाल उठाती है:
- एक ओर जनता द्वारा चुनी गई विधानसभा सरकार है, जिसका मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला है।
- दूसरी ओर केंद्र द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल (एल-जी) प्रशासन है, जिसके पास पुलिस, कानून-व्यवस्था और भूमि का नियंत्रण है।
सत्ता का असंतुलन
जब एक मुख्यमंत्री को पुलिस रोक लेती है, तो यह सवाल उठता है कि क्या जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सरकार केवल नाममात्र की है? क्या यह भारतीय संविधान की ‘स्वशासन’ और ‘लोकतंत्र’ की भावना का उल्लंघन नहीं है?
जनता की आवाज़ कहाँ?
कश्मीरी नागरिकों की अनदेखी
इस पूरे विवाद में आम कश्मीरी नागरिकों की आवाज़ दब गई। ये वही लोग हैं जिनके पूर्वजों ने 1931 में बलिदान दिया था। अब न उन्हें स्मृति मनाने की अनुमति है, न स्वायत्तता। सवाल है:
- क्या जनता को यह तय करने का अधिकार नहीं कि वे किसे याद करें?
- क्या नागरिक अधिकार केवल वोट देने तक सीमित हैं?
अन्य नेताओं की प्रतिक्रिया
ममता बनर्जी (मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल)
“एक चुने हुए मुख्यमंत्री को श्रद्धांजलि से रोकना लोकतंत्र का अपमान है। यह संविधान के मूल अधिकारों का हनन है।”
मीरवाइज उमर फारूक
“Power teaches little, Powerlessness teaches more. आज मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने वही सहा जो हर कश्मीरी नागरिक रोज़ झेलता है — एक असहाय, विवश स्थिति जिसमें उसकी आवाज़ दबा दी जाती है।”
अन्य विपक्षी नेता
तजस्वी यादव, प्रियंका गांधी और भगवंत मान जैसे नेताओं ने इसे लोकतंत्र पर आघात बताया। कुछ ने इसे ‘भारत में लोकतंत्र की मृत्यु का संकेत’ करार दिया, तो कुछ ने ‘स्मृति के दमन’ का प्रयास कहा।
निष्कर्ष: दीवारें अब सवालों की दीवार
13 जुलाई 2025 की घटना केवल एक श्रद्धांजलि या कब्रगाह का मुद्दा नहीं थी। यह एक विचार, एक टकराव और शायद एक चेतावनी थी। अगर लोकतांत्रिक अधिकारों की सीमाएं इतनी संकुचित हो जाएं कि एक मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को दीवार फांदनी पड़े, तो यह आवाज़ को दबाने की बजाय सवालों को और बुलंद करता है। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारा लोकतंत्र वास्तव में जनता की आवाज़ सुन रहा है, या यह केवल सत्ता की दीवारों के पीछे सिमट रहा है?